मुईजुउद्दीन बहरामशाह: 1240-1242
- रजिया के बाद के शासक इस योग्य नहीं थे कि वे सुल्तान के पद को अधिक प्रतिष्ठित बना सके। अपनी शासन सत्ता को सुरक्षित करने के लिए तुर्की अधिकारियों ने एक नवीन पद नायब-ए-मुमलकत की रचना की जो सम्पूर्ण अधिकारों का स्वामी होगा। यह पद एक संरक्षक के समान था। बहराम शाह का चुनाव इस शर्त पर किया गया था कि वह इख्तियारउद्दीन ऐतगीन को अपना नायब बनाए। ऐतगीन रजिया के विरुद्ध षड्यंत्रकारी नेता था, अतः उसका चुनाव सुल्तान के लिए एक बाधा था। साथ ही वजीर का पद भी समाप्त नहीं किया गया और वह मुहम्मद एवज के हाथों में ही रहा। इस प्रकार वास्तविक सत्ता के तीन दावेदार थे- सुल्तान, नायब और वजीर।
- इन सबके बाद भी बहराम शाह अपनी प्रतिष्ठा और विशेषाधिकारों के संबंध में तुर्की सरदारों से समझौता करने को तैयार नहीं था। ऐतगीन ने नायब बनने के बाद शासन की बाग़डोर अपने हाथों मे ले ली। इसने अपने द्वार पर नौबत और हाथी रखना प्रारंभ कर दिया। जिसका अधिकार केवल सुल्तान को होता था। ऐतगीन की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाओं के कारण सुल्तान ने उसकी हत्या करवा दी।
- बादउद्दीन सुन्कर अमीर - ए- हाजीब के पद पर था। ऐतगीन की मृत्यु के बाद उसने नायब के सभी अधिकारों को अपने हाथ में ले लिया। उसने कुछ अमीरों के साथ मिल कर बहराम शाह की हत्या का षडयंत्र रचा परंतु वजीर मुहजजबुद्दीन ने इसकी सूचना सुल्तान को दे दी। सुल्तान ने शीघ्रता से कार्यवाही करके षड्यंत्रकारियों को पकड़ लिया, परंतु उसने उन्हे कठोर दंड नहीं दिया या तो इन्हे पद से हटा दिया या इनका स्थानांतरण कर दिया। बुदुद्दीन सुन्कर को बदायूं का अक्तादार बना कर भेज दिया परंतु चार माह बाद ये दिल्ली आज गया अतः उसकी और तजुद्दीन अली मंसूदी की हत्या कर दी गई।
- इन दोनों की हत्या से अमीरों में भय फैल गया और वे अपनी सुरक्षा के लिए सावधान हो गए। सुल्तान और अमीरों के बीच की खाई और गहरी हो गई और वजीर मुहजजबुद्दीन ने बहराम को सिंहासन से हटाने का निश्चय कर लिया।
- इस बीच 1241 को मंगोल आक्रमण हुआ था। इसमे वजीर को एक अवसर मिल गया। सुल्तान ने उसे और अन्य अमीरों के साथ मंगोल के विरुद्ध युद्ध करने को भेजा था। इसी बीच बड़ी ही चतुराई से इसने सुल्तान का फरमान प्राप्त कर लिया कि उन सभी तुर्की अमीरों की हत्या कर दी जाए जो स्वामी भक्त नहीं है। इस फरमान को सुन्कर सभी तुर्की अमीरों ने विद्रोह कर दिया परिणाम स्वरूप 10 मई 1242 को अमीरों और तुर्कों ने नगर पर अधिकार कर लिया और बहराम शाह की हत्या कर दी गई।
अलाउद्दीन मसूदशाह: 1242-46
- मलिक इजउद्दीन कीशलू खां ने विद्रोहियों का नेता होने का दावा किया और इल्तुतमिश के महलों में अधिकार किया। उसने स्वयं को सुल्तान घोषित किया परंतु तुर्की अमीर राजवंश में परिवर्तन नहीं चाहते थे उनके विरोध के भय से किसलू खां ने एक हाथी और नागौर के अक्तादार के बदले सिंहासन से अपना दावा वापस ले लिया। इससे स्पष्ट हो गया कि तुर्की सरदारों में कोई इतना शक्तिशाली नहीं था जो सुल्तान बन सके।
- यह भी स्पष्ट था कि गद्दी इल्तुतमिश के वंशज को ही दी जाएगी पर उसे केवल नाममात्र का सुल्तान बनकर रहना होगा।
- अब अमीरों ने मसूदशाह को सुल्तान चुनकर जनता से अनुरोध किया कि वे उसे शासक स्वीकार करे। उसे भी इस शर्त पर सुल्तान बनाया गया कि राज्य की सत्ता का प्रयोग वह नायब द्वारा करेगा। मलिक कुतुबउद्दीन हसन को वजीर बनाया गया। ख्वाजा मुहजजबुद्दीन की हत्या कर दी गई क्योकि वह गैर तुर्की था।
- बहरामशाह के विरुद्ध विद्रोह में गयासुद्दीन बलबन ने समस्त तुर्की व ताजिक विद्रोहियों में सबसे अधिक साहस दिखाया था, अतः उसे हांसी की अक्ता दी गई। मुहजजबुद्दीन की हत्या के बाद वह अमीर - ए - हाजीब बनाया गया। बाद मे उसे उलूग खां की उपाधि प्राप्त हुई थी।
- बलबन भी चालीस दल का सदस्य था, परंतु अपनी योग्यता के कारण उसने बहुत अधिक प्रभावशाली स्थान प्राप्त किया। मिनहाज के अनुसार उसकी सफलता से दरबारी वर्ग उससे ईर्ष्या करने लगे थे।
- मसूदशाह के शासनकाल मे बलबन ने अपनी शक्ति बढ़ा ली थी और तुर्कों पर उसका प्रभुत्व रहा था। वह तुर्की सरदारों का नेता बन गया था। मंगोल आक्रमण के कारण तुर्की सरदारों का ध्यान उस ओर लगाकर बलबन ने सत्ता पर अपना प्रभाव बढ़ा लिया था। यह बलबन की शक्ति निर्माण का काल था।
- 1245 में मंगोल के विरुद्ध नीति में सफल होने के बाद बलबन का प्रभाव अधिक बढ़ गया। इस अभियान में लाहौर, उच्च और मुल्तान सल्तनत के अधिकार में आ गए।
- बलबन अपने साथ के तुर्की अधिकारियों की ईर्ष्या के प्रति सावधान था। अतः जब उसने सुल्तान के पद पर नसीरुद्दीन महमूद को बैठाने का षड्यंत्र किया तो उसने बिना कोई शर्त रखे सभी महत्वपूर्ण तुर्की अधिकारियों को अपनी ओर मिला लिया। जिस शान्तिपूर्ण ढंग से मसूदशाह को सिंहासन से हटाया गया इससे स्पष्ट है कि सुल्तान अपनी सत्ता पूरी तरह से खो चुका था। इसके बाद 10 जून 146 को मसूदशाह को कारागार में डाल दिया गया जहाँ इसकी मृत्यु हो गई।
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